होली के त्यौहार के बारे में जानकारी |

होली के त्यौहार के बारे में जानकारी |

भूमिका - मनुष्य अपने दैनिक क्रिया - कलापों में इतना तल्लीन रहता है कि उसको परिश्रम, परेशानी व दुःखों का सामना करना पड़ता है।  इन सब से छुटकारा पाने के लिए त्यौहार मनाये जाते है।  होली का  त्यौहार आनन्द व खुशियों का प्रतिक है।  यह एक रंगो का त्यौहार है।  रंग का अर्थ होता है - आनंद।  जब आदमी के दिल में रंग होता है तो वह ख़ुशी से झूम उठता है।  दिल के आनंद को बाहर के रंगो द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।  यही है होली का त्यौहार का मनाने की महत्ता। 


त्यौहार का समय - होली का त्यौहार फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। शिशिर ऋतु की समाप्ति पर यह बसन्त ऋतु के आगमन का सूचक है।  तब पतझड़ समाप्त होता है।  पेड़ पौधे व वनस्पतियो में नयी कोपले फूटने लगती है।  चहुं और रंग-बिरंगे पुष्प विकसित होने लगते है।  सारी प्रकृति रंग-बिरंगी हो जाती ै है।  वन, उपवन सब विविध रंगो से सराबोर हो जाते है।  इन सब को देखकर मानव का अशांत मन खिलने लगता है।  वह भी स्वयं प्रकृति की तरह रंग-बिरंगा होना चाहता है।  वह आनंद में झूमने लगता है।  बाहर और भीतर दोनों और से रंग से भर जाता है। उस असीम आनंद को व्यक्त करने के लिए हम स्वयं रंग-बिरंगे हो जाते है और अन्य लोगो को भी अपनी तरह आनन्दित करने के लिए हम स्वयं रंग-बिरंगे हो जाते है और अन्य लोगो को भी अपनी तरह आनंदित करने के लिए रंग से भर देते है।  


पौराणिक कथा - प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नामक एक नास्तिक व घमंडी राजा था।  उसका पुत्र प्रहलाद ईश्वर भक्त था।  इसी कारण वह उसको पसंद नहीं करता था।  ईश्वर की भक्ति के लिए बार-बार मना करने पर भी जब वह नहीं माना तो उसने अपने पुत्र को मार डालने की योजना बनाई।  होलिका नामक उसकी एक बहन थी।  उसके पास एक विशेष प्रकार के वस्त्र थे जिसको पहन कर वह आग में ही नहीं जल सकती थी।  उसने उसी प्रकार का एक नकली वस्त्र प्रहलाद के लिए भी बनवाया।  उन वस्त्रो को पहन कर प्रहलाद के साथ वह अग्नि की चिता में बैठ गई।  दैव योग से नकली वस्त्र होलिका ने और असली वस्त्र प्रहलाद ने पहन लिये।  फलतः लिये।  फलतः प्रहलाद बच गया और होलिका जलकर भस्म हो गई।  उसी दिन से शाम को होलिका जलाने की परम्परा बन गई जो बाद में एक ऋतु पर्व व रंगो का पर्व बन गया। 



मनाने की विधि - होली, तिथि से कई दिन पूर्व से विविध मनोविनोद द्वारा मनानी आरम्भ हो जाती है।  निश्चित तिथि फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलिका दहन किया जाता है।  गाँव में कृषक लोग नये अन्न को समर्पित कर भुने हुए अन्न को परस्पर बाटकर खाते है।  उसके बाद ही नये अन्न को खाने की परम्परा है।  होलिका दहन के दूसरे दिन प्रातः से ही होली, रंग द्वारा खेली जाती है।  लोग एक दूसरे पर रंग, गुलाल, अबीर डालते है।  सड़को पर टोलिया गाती, नाचती, गुलाल मलती, रंग भरी पिचकारियां छोड़ती दिखाई देती है।  गांव, शहर चहुं और सब रंगो से रग कर खुशियों में झूमने लगते है।  सर्वत्र आनंद की लहर उमड़ पड़ती है।  जिस पर रंग फैंका जाता है वह भी और जो रंग फैंकता है वह भी, दोनों हंसी की बौछारे छोड़ने लगते है।  


होली भाई-चारे, एकता,प्रेम, ख़ुशी व आनंद का त्यौहार है।  इसमें हर वर्ग का आदमी भाग लेकर एक-दूसरे को गले लगता है।  आज  दूषित वातावरण में हमे इसमें उत्पन विकारो को दूर करने का प्रयास करना चाहिए  गंदे लोगो को सामाजिक रूप से लज्जित करना चाहिये।  इसकी प्राचीन परम्परा को उसी प्रकार सुरक्षित रखना चाहिए।    


धन्यवाद। 

                                  
                                                       :- अतुल कुमार 

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